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इस सन्दर्भ में
आधिकारिय़ों का कहना है कि पहले से ही टाटा
और अशोक लीलैंड कंपनियों की बसें अभी दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही हैं। इन बसों को
जब खरीदा गया था तो इनके वार्षिक
रखरखाव की जिम्मेदारी भी इन्हीं कंपनियों
को दे दी गयी थी। उस समय सरकार और इन कंपनियों के बीच करीब ढाई रुपये प्रति
किलोमीटर की दर से रखरखाव का समझौता किया गया था। हुआ यह है कि इन बसों में लगातार
आ रही तकनिकी खराबी के कारण निजी कंपनियों को ढाई रुपये प्रति किलोमीटर की दर से
इनके रखरखाव का सौदा बेहद महंगा लगने लगा है। इसीलिए जब सरकार की ओर से बसों की नई
खेप खरीदने की कवायद शुरू हुई तो इन कंपनियों ने रखरखाव के मद में करीब 80 रुपये
प्रति किलोमीटर की दर तय करने का प्रस्ताव रखा। चूंकि ढाई रुपये और 80 रुपये प्रति
किलोमीटर में कोई तुलना तक नहीं की जा सकती । इसी क्रम में भारतीय कंपनियों के
अलावा चीन की कंपनियों द्वारा मांगी जा ही कीमतों का आकलन भी किया जा रहा था।जिसका
खर्च भारतीय बसों की अपेक्षा काफी कम पड़ रहा था। लिहाजा डीटीसी के खेमें में चीन
की बसे भी शामिल करने की योजना बनायी गयी थी।
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