Tuesday, April 12, 2016

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

नई दिल्लीस, ( कविलाश मिश्र)। आगे की कथा बताते हुए मुरारी बापू बताते है कि बालकांड में रामजी व उनके भाइयों की बालपन की चर्चा हैं और अयोध्याह कांड में उनके और उनके भाइयों के युवानी ( युवावस्था ) की चर्चा हैं। इसलिए तुलसी जी शिवजी का स्म रण करते हुए उनकी प्रार्थना कर रहे है। वे कहते हैं कि भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहारकर्ता , भक्तों के पापनाशक, सर्वव्यापकचन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें। मुरारी बापू कहते हैं कि युवाओं को शिवजी या वे जिस किसी की पूजा कर रहे हो, उनकी आराधना करनी चाहिए। भजन का कोई समय नहीं होता, कोई आयु निश्चित नहीं है। भजन आयु का विषय नहीं हैं। यह युवानी विषय है। यदि बुद्ध पुरूष का साथ होगा तो उनके कार्य सफल होंगे। ’ श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥ श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ जो चारों फलों को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने वाला है। आयोघ्याव के समृद्धि का बखान नहीं हो सकता है। लेकिन जहां अतिशय सुख होता है वहीं अतिशय दुख होता है। जिस किसी के साथ अति शब्दा का जुडाव हो जाता है वह परेशान करने वाला सबब बन सकता है। अतिशय से मिलना चाहिए। राज तिलक की घोषणा हो गई है। लेकिन, दूसरी तरु विधाता ने भी अपना काम शुरू कर दिया है। देवताओं ने सरस्ववति जी की स्तुनति की है। इसके पश्चाेताप्‍ सरस्विति जी ने मंथरा की बुद्धि घुमा दी है और मंथरा ने कैेकयी की बुद्धि का एक प्रकार से हरन कर लिया है। जिस कैकयी को सभी पुत्रों में सबसे प्रिय पुत्र राम लग रहा हो वह उसी के लिए महाराज दशरथ से वनगमन का मांग कर रही है। राम लक्ष्मरण जानकी पूरे अवध को एक प्रकार से अचेत करके निकल गए है तो उनके साथ-साथ अयोध्या निवासी भी निकल पडे हैं। राजा दशरथ ने उन्हेंक लाने के लिए सुमंत्र जी को भेजा हैं। तमसा तट पर जब सभी रात्री में विश्राम कर रहे होते हैं , उसी वक्तस राम जी सुमंत्र जीे के रथ पर सवार होकर गंगा किनारे पहुंचते हैं। ’ यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥ लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥ जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई तो उसके हृदय में हर्ष की सीमा नहीं थी। दण्डवत करके भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को देखने लगा। सीताजी, सुमंत्रख्‍ और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द.मूल-फल खाकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी लेट गए। भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबा रहे है। दूसरके दिन नित्य कर्म के बाद श्री रामचन्द्रजी नेबड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया। उनका हृदय अत्यंत जलने लगाए मुँह मलिन हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यंत दीन वचन बोले. हे नाथ! मुझे कौसलनाथ दशरथजी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्री रामजी के साथ जाओ। वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सुमंत्र जी काफी उदास है। श्री रात जी उनके संसयों को दूर कर रहे हैं। राम जी , सुमंत्र जी से कहते हैं कि आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर बिनती करिएगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें। आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं।मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावें। श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन गँवाकर लौट रहे हो। ’ रथु हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं। देखि निषाद बिषाद बस धुनहिं सीस पछिताहिं॥ सुमंत्र ने रथ को हांका, घोड़े श्री रामचन्द्रजी की ओर देख.देखकर हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषाद लोग विषाद के वश होकर सिर धुन.धुनकर पछताते हैं। गंगा पार करते समय केवट और श्री राम जी प्रसंग अमृत घोलने के समान है। श्री राम केवट से नाव माँग रहे है लेकिन वह लाता नहीं है। केवट कह रहा है कि तुम्हारे चरण कमलों की धूल मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है। जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई। ’ एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥ जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥ प्रभु श्री राम से केवट कह रहे है कि मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने के लिए इजाजत दीजिए। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा। अब रात जी कह रहे है कि तूम वहीं करो जिससे तुम्हा!र भला हो। ’ जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥ सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥ शिव जी पार्वती से कह रहे है कि हे भवानी। एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने वामनावतार में जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था ,दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था, वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी गंगाजी से पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं! गंगा पार करने के बाद श्री राम जी जब उतराई दे रहे थे तो उनके पास कुछ नहीं था। पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी उतारी। तब वे केवट को उतराई लेने को कहा तो केवल व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए। हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा। श्री मुरारी बापू कहते है कि केवट की चतुराई देखिए किस प्रकार भक्ति भाव में उूबकर वे दोबारा से प्रभु राम से मिलने का समय मांग लिए। फिर वे भरद्वाज मुनि के आश्रम प्रयाग पहुँचे। वहां से वे वाल्मीकि आश्रम पहुंचे। श्री रामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत किया। फिर, राम जी ने मुलि से पूछा कि मैं कहा रहूं। तो मुनि ने कहा कि, आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊं। सुनिएए अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है,जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं। तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य रूपी मेघ की एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं, आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा सी भी झाँकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौंदर्य का तिरस्कार करते हैं, हे रघुनाथजी! उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिए। जिनके न तो कामए क्रोध, मदए अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ हैए न राग हैए न द्वेष है और न कपटए दम्भ और माया ही है. हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए। इसके बाद महाऋषि ने कहा कि आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिएए वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है। दूसरी तर।, सुमंत्र जी लौट रहे है। व्याकुल और दुःख से दीन हुए सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री रघुवीर के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे कि इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा। मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया। वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे। सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया। जब संध्या हुई तब उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे चुपके से महल में घुसे। मंत्री ने देखकर जयजीव कहकर राजा को दण्डवत्‌ प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले. सुमंत्र! कहो राम कहाँ हैं। शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे कि सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। हे सखा! श्री राम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं। सुमंत्र जी कह रहे है कि मैं अपने क्लेश को कैसे कहूँ जो श्री रामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गई। सारथी सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े। राजा के प्राण कंठ में आ गए। मुरारी बापू कहते है कि इस समय राजा दशरथ से कह रहे है कि इस दीवार में तुम्हेंआ कुछ नजर आ रहा है। दशरथ जी बताते है कि मुझे यहांं श्रवण कुमार के माता पिता नहर आ रहे है। श्रवण कुमार के माता पिता ने दशरथ जी को शाप दिया था कि पुत्र वियोग में तुम्हाहरी भी मौत होगी। मुरारी बापू कह रहे है कि कर्म का फल तो सभी को भोगना पडता है। इससे ब़हमा भी बच नहीं सकते। राजा की स्थिति खराब होने लगती है। कौशल्या ने गुरू वशिष्ठब को बुला लिया। ’ राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम। तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥ और राजा। हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ! राम-राम कहकरराम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए। मुरारी बापू कहते है कि हां का मलब पुकार, आह और विश्राम है। राजा के प्राण छूटते ही गुरू वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघन को बुलाने के लिए दूत भेजा और यह हिदायत दी कि अयोध्यार के घटना के बारे में कुछ न बताएं। उधर , भरत जीे को सपने सही नहीं आ रहे थे। उन्हेंू लग रहा था कि अयोध्याक में सभी कुछ सही नहीं है। इसलिए उन्हों ने रूद्राअभिषेक यज्ञ भी कराया। उसी समय दूर ने उनहे अयोध्याम आने की बात बताई। भरत अपने भाई के साथ अयोध्याम पहुंचते है। भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। वे माता से पूछ रहे हैं कि माता! पिताजी कहाँ हैं। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम.लक्ष्मण कहाँ हैं। पिताजी स्वर्ग में हैं और श्री रामजी वन में हैं। केतु के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूँ। मुझे धिक्कार है! मैं बाँस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुःख और दोषों का भागी बना। भरतजी के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर सँभलकर उठीं। उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। हे तात! किसी को दोष मत दो। विधाता मेरे सब प्रकार से उलटा हो गया है। जो इतने दुःख पर भी मुझे जिला रहा है। भरत जी कह रहे है कि कर्म, वचन और मन से होने वाले जितने पातक एवं उपपातक बड़े.छोटे पाप हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं, हे विधाता! यदि इस काम में मेरा मत हो तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें। जो वेद मार्ग को छोड़कर वाम वेद प्रतिकूल मार्ग पर चलते हैं, जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत को छलते हैं, हे माता! यदि मैं इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकरजी मुझे उन लोगों की गति दें। माता कौसल्याजी भरतजी के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं श्री राम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण हैं और तुम भी श्री रघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे जलचर जीव जल से विरक्त हो जाए। और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे, पर तुम श्री रामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत में जो कोई ऐसा कहते हैं, वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे। फिर, राजा के अंतिम संस्का,र की तैयारी होने लगी। चंदन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार सुगंध द्रव्यों के बहुत से बोझ आए। सरयूजी के तट पर सुंदर चिता रचकर बनाई गई जो ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो। इस प्रकार सब दाह क्रिया की गई और सबने विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी। शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी आए और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया। राजा के इच्छाम अनुासार भरत को राजगद़दी पर बैठने के लिए कहा गया लेकिन भरत ने कहा कि हमलोगों को पहले भैया श्री राम जी के पास जाकर उनहें लाना चाहिए। लेकिन गुरू कह रहे है कि जो तुम्हारे और श्री रामचन्द्रजी के श्रेष्ठ संबंध को जान लेगा वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा। श्री रामचन्द्रजी के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुंदर स्नेह से उनकी सेवा करना। धैर्य की धुरी को धारण करने वाले भरतजी धीरज धरकरए कमल के समान हाथों को जोड़करए वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे। पिताजी स्वर्ग में हैं, श्री सीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिए कह रहे हैं। इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम की आशा रखते हैं। मुझे आज्ञा दीजिए मैं श्री रामजी के पास जाऊँ! मेरा हित इसी में है। सबको सिर झुकाकर मैं अपनी दारुण दीनता कहता हूँ। श्री रघुनाथजी के चरणों के दर्शन किए बिना मेरे जी की जलन न जाएगी। भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष से सब लोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे। फिर सभी श्री राम को लेने चले। रास्तेे में पहले निसाद से मुलाकात हुई। निसाद ने भक्ति भावना से गुरू वशिष्ठ को प्रणाम किया और रथ पर से ही उन्हों ने उनहें आर्शीवाद दिया लेकिन जब उसी निशाद को प्रभु श्री राम के द्वारा बाद गले लगाते देखे तो उन्हेंं अपने धर्माचार्या को लेकर खेद हुआ। समाज के अंति व्याक्ति को जबतक गले न लगाया जाएश्‍ उसका उद्धार न हो तो राम राज्यस कैसे हो सकता है। मुरारी बापू कहते है कि श्री भरत जब श्री राम से मिलने जा रहे थे तो उन्हें चार प्रकार के विघ्नोंब का सामना करना पडा। चित्रकूट पहुंच कर वे पैदल चलने लगे तो सारा समाज पैदल चलने लगा। इसे देखकर माता कोशल्याा के कहने पर उसने इसलिए रथ की सवारी ली क्योंदकि समाज को वे ककष्ट देना नहीं चाहते हैं। मुरारी बापू कहते है कि व्रत रखो लेकिन गुपत रखों बाद में भीड से आगे निकल कर भरत जी ने ऐसा ही किया। उन्हें मार्ग में बाधा डालने के लिए रिद्धी-सिद्धी भी आए। आना एश्वसर्य दिखाया लेकिन वे विचलित नहीं हुए। फिर, कही राम जी भरत से मिलने के बाद अयोध्या् वापस न आ जाए इसलिए देवताओं ने भी विध्नक डालने की कोशिश की। ..और अंत में लक्ष्महण को लगा कि चतुरंगीनी सेना लेकर भरत डन दोनों भाइयों को मारने आ रहे है इसलिए उन्हें भी क्रोध हो बाया। बापू कहते है कि जब परिवार का कोई निकट संबंधी विध्न डालने की कोशिश करें तो समझ लेना चाहिए कि सत्यप की विजय हो रही है। भरत तो सत्य् आचरण को ही जी रहे थे। चित्रकूट में राम व भरत का मिलन हो रहा है। आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुःख और दाह मिट गया। सिर पर जटा हैए कमर में मुनियों का वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। सुंदर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात्‌ भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं। छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन मग्न हो रहा है। हे नाथ! रक्षा कीजिए हे गुसाईं! रक्षा कीजिए। ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिराए कहीं तरकसए कहीं धनुष और कहीं बाण। कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई। श्री राम जी अयोध्याम लोटने के लिए भरत जी औश्र सभासद निवेदन कर रहे है..और अंत में बहुत वार्तालाप के बाद सभासदों ने कहा कि इसका निपटारा दोनों भाई ही करेंगे। बहुतों प्रकार से समझाने के बाद भरत वापस लौटने को तैयार होते है लेकिन राज्यर चलाने के लिए वे श्री राम जी का पादुका उन्सेद मांग लाते है। अयोध्या पहुंच की पादुका की स्था पना की जाती है और फिर गुरू वशिष्ठा और माता कोशल्य की आज्ञा के बाद ऋषि वेश में वे नंदीग्राम रहले चले जाते है। इसके बाद श्री राम पंचवटी आते है और यहां नरलीला करते है। वे सीता जी को अग्नि में समाने के लिए कहकर उस मृग का पीछा कर रहे है जिसे सीता जी ने लाने के लिए भगवान श्री राम से कही है। समय पाकर रावण सीता जी को हर कर ले जाते है। रास्तेए में जटायू उनका रास्ता रोकने की कोशिश करते है लेकिन असफल होते है। सीता के वियोग में श्री राम ललित नरलीला कर रहे है। यहीं उसकी मुलाकात जटायू से हो रही है। जटायू ने सीता जी को रावण द्वारा ले जाने की बात कह कर अपना प्राण त्याेग देते है। जटायू का विधिवत संस्काीर कर के सीता की खोज में वे कंबज नाम के राक्षण को निर्वाण देते है। इसके बाद उनकी मुलाकात माता सबरी से होती है। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार.बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया। फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा. हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं। और राम जी कहते हैं कि ’ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥ जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता। इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादलदिखाई पड़ता है। मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।राम मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास, यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह शील ,अच्छा स्वभाव निरंतर संत पुरुषों के धर्म आचरण में लगे रहना। सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो,हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है। ’ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे। तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥ सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर शबरी उस लोक गई जो कईयों के लिए मुश्किल है। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत, ये सब शोकप्रद हैं हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो। इसके बाद श्री राम जी आगे बढते है। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर सुग्रीव अत्यंत भयभीत हो जाते है। वे हनुमान से कहते हैं कि हे हनुमान्‌! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना। हनुमान जी, दोनों भाइयों से मिलकर और सभी प्रकार से संतुष्ट होकर उन्हेंद वे सुग्रीव से मिलाने ले आते है। अग्नि का साक्षी मानकार दोनों की मैत्री होती है। फिर, श्री राम बालि का वधकर सुग्रीव को राजा बनाते है और बालि के पुत्र अंगद को बनाते है। चार माह के बाद सीता जी को खोजने के लिए चार गुट बनाए जाते है। हनुमान जी, अंगद और जामवंत आदि सीता जी को खोजने के लिए दक्षिणदिशा जाते है। जाते वक्तज ज्ञर राम ने हनुमान जी के मांगने पर अपनी मुद्रिका पहचान के लिए दे दी थी। समुद्र के किनारे समपाती के कहने पर की लंका में सीता जी अशोक वाटिका में बैठी है। सभी में हर्ष फैल जाता है लेकिन, समुद्र को लांघना किसके बूते की बात है। इसी पर सभी परेशान है। अगंद कह रहे है कि मैं पहुंच तो जाउंगा लेकिन वापसी मुश्किल है। जाम्बवान्‌ कहने लगे मैं बूढ़ा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि खर के शत्रु श्री राम वामन बने थे तब मैं जवान था और मुझ में बड़ा बल था। बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर उस शरीर की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं। फिर वे, हनुमान जी को चुपचाप देख कर उनके पास जाते है। ’ कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥ ऋक्षराज जाम्बवान्‌ ने श्री हनुमानजी से कहा, हे हनुमान्‌! हे बलवान्‌! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है। तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो। जगत्‌ में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्‌जी पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए। हनुमान्‌जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा कि मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूं। सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान्‌! मैं तुमसे पूछता हूं तुम मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए। यहां मुरारी बापू बताते है कि यह संवाद काफी रोचक है। युवाओं में शक्ति है और बुजुर्गों के पास अनुभव। दोनों मिल जाए तो रामराज्या की स्थाापना हो जाए। यहां जाम्बवान्‌ ने कहा कि हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे। ’ जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥ जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। वे बोले, हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द.मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना। जब तक मैं सीताजी को देखकर लौट न आऊँ। काम अवश्य होगा क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले। लंका पहुंचने के बाद सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े। शिवजी कहते हैं कि हे उमा! इसमें वानर हनुमान्‌ की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है कुछ कहा नहीं जाता। ’ प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥ गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥ अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है शत्रु मित्रता करने लगते हैं। समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है। हनुमान जी ने प्रत्येक महल की खोज की। रावण के महल में गए। लेनिन सीता जी दिखाई नहीं दे रही थी। उसी समय विभीषणजी जागे। वे राम नाम का स्मरण कर रहे थे। हनमान्‌जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। वहीं से उनहोंने सीता जी के बारे में जानकारी मिली। हनुमान अशोकवाटिका पहुंचे जिस वृक्ष्‍ के नीचे सीता जी बैठी थी। उसी समय वहां रावण आकर अपना भय दिखाकर वापस चला गया। सीता जी को व्याठकुल देखकर हनुमान्‌जी ने हदय में विचार कर सीताजी के सामने अँगूठी डाल दी। मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। यह समझकरद्ध सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया। तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं। ’ जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥ सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥ वे सोच रही है कि श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं। माया से ऐसी अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, जिनके सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। फिर हनुमान जी बताया कि किस प्रकार से नर और वानर की मुलाकात हुई। फिर, उन्होंगने सीता मैया से वहां के उपवन में लकर फल खाने की इच्छाका जाहिर की। आज्ञा मिलते ही हनुमान जी ने फल खाने लगे। इसे देखकर राक्षण उनपर हमला करने लगे। उन्होंहने कई राक्षसों को मार डाला। फिर रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा। हनुमान जी उसकर भी वध कर दिया। फिर, इंद्रजीत उन्हें् बांध कर ले गए। मुरारी बापू बताते है कि हनुमान जो स्वैयं शिव थे वे देखना चाह रहे थे कि मेरा चेला किस प्रकार रह रहा है। फिर, हनुमान जी को दंड देने के लि ए उनके पूंछ में आग लगाई गई। उनके पूंछ को बांधने में लंका के सभी कपडे और घी समापत हो गए। हनुमान जी ने पूरे लंका में आग लगा दी फिर सिंधू में कूद गए। वहां से माता सीता के पास आए और माता ने पूछा कि यह आग कैसी है। मुरारी बापू बताते है कि माता यह आग मेरे पिताजी पवन ले लगाई है। नहीं माता यह आग भगवान के प्रताप ने लगाई है। ..नहीं मां यह आग आपके संताप ने लगाई है। नहीं मां, यह आग रावण के पाप ने लगाई है। इसे बाद हनुमान जी चुडामणि लेकर राम जी के पास आते है। फिर, सभी लंका के और प्रसथान करते है। इसी कर्म में समुदं के पास पहुंचते है। समुद्र द्वारा नल और नील के बारे में बताया जाता है कि यह जिस पत्थ।र को छुएंगे वह समुद्र पर तैरने लगेगा। सेतू का निर्माण होता है। वहां रामेश्वथर में भगवान राम स्व्यं महादेव की स्थाापना करते हैं। सेना लंका पहुंचती है। अंगद जी , दूत बनकर रावण के पास जाते है लेकिन शांति संधि को रावण नहीं मानता और बाद में युद्ध में कूल समेत मारा जाता है। दोबारा अग्नि से माता सीता राम जी को प्राप्तर होता है। राम जी जब मृग के पीदे गए थे उस वक्तन उन्हों ने सीता जी से कहा थी कि तुम अब अग्नि में प्रवेश कर जाओ। हमे नरलीला करनी है। फिर, सभी अयोघ्याि पहुंत है। वहां राम राज्ये कर स्था पना होती है। तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं। वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं। जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों को भी मनोहर जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्री रामजी हरण कर लेते हैं। सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं ऐसे एक श्री रामचंद्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम निःस्वार्थ हित करने वाला सुहृद्द् और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है। यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते। ---------------------------------------

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