Tuesday, April 12, 2016

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥ नई दिल्लीभ, 06 फरवरी ( कविलाश मिश्र)। दिल्ली के राजघाट पर चल रहे राम कथा के आंठवे दिन संत मुरारी बापू ने संत और असंत के लक्षणों मानस औ महात्मा गांधी के विचारों के द्वारा बताया। साथ ही उन्हों ने इस दौरान नारद और प्रभु राम के उस प्रसंग का भी उल्लेेख किया जिसमें नारद प्रभु राम से संत व असंत के लक्षणों को बताते हैं। उन्होंकने नवयुवाओं से भी आग्रह किया कि जब भी मौका मिले अपने आराध्यष का स्महरण करना चाहिए। इसके लिए क्याआ दिन और क्याौ रात। मुरारी बापू कहते है कि जिस लक्षणों के कारण मैं उनके अधीन हो जाता हूं। वे आगे बताते हैं कि जिसको मंहत बनने को कभी इच्छाक न हो वह संत हैं। संत वह है जिसका कोई अंत नहीं हैं। कथा के दौरान बापू शिव धनुष भंग, जानकी विवाह, विदाई सहित राजा दशरथ के आयौध्याे आने को लेकर ज्ञान के सरोबर में भक्तोंव को गोता लगाते रहते हैं। नारद मुनि भगवान श्री राम से संतों के लक्षणों के बारे में पूंछ रहे हैं। ’ संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥ सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ। हे रघुवीर! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए! श्री रामजी कहते हैं मैं संतों के गुणों को कहता हूँ जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूं। संत काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर, इन छह विकारों से दूर रहते हैं। वे पापरहित, कामनारहित, निश्चल , सर्वत्यागी, बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही। संत कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं। उनका सरल स्वभाव होता हैं और सभी से प्रेम रखते हैं। वैराग्य, विवेक, विनय, परमात्मा के तत्व का ज्ञान और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते। ’ कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे। अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥ सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए। ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥ जिनके गुणों का वर्णण शेष जी व शारदा जी भी नहीं कर सकते । भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं। मुरारी बापू, शिव उमा के एक प्रसंग को सुनाते हुए बताते हैं कि शिवजी , उमा को बता रहे हैं कि इंष्याष, निंदा और द्वेष जो न करे वे संतों के श्रेणी में आते हैं। कल की कथा को आगे बढाते हुए मुरारी बापू कहते हैं कि सीता स्वइयंवर को लेकर राजा जनक द्वारा दिए गए निमंत्रण पर गुरू विश्वामित्र श्री राम-लक्ष्मण सहित यज्ञशाला में प्रवेश करते हैं। विश्वामित्र कहते हैं कि देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। इस पर लक्ष्मणजी कहते हैं कि हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा। रंगभूमि में दोनों भाई आने की सूचना मिलते ही नगर निवासी रंगभूमि की ओर चले। बड़ी भीड़ देखकर जनकजी ने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवाकर सब किसी को यथायोग्य आसन देने को कहा। उसी समय श्री राम और लक्ष्मण वहाँ आए। वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर प्रतीत हो रहे हैं।यज्ञशाला में आने महान रणधीर राजा श्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों जबकि कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो। छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में बैठे उन्हें प्रभु काल के समान दिखाई दे रहे थे। विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए। जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं। उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। सीताजी जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता। उस स्नेह और सुख का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं। वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥ इस प्रकार जिसका जैसा भाव था प्रभु श्री राम उन्हेंे उसी रूप में दिखाई दे रहे थे। जनकजी जाकर मुनि के चरण कमल पकड़ लिए। दोनों भाइयों को देखकर वे हर्षित हो रहे है। वे मुनि को अपनी कथा सुनाते है और दोनों भाइयों के साथ मुनि को सारी रंगभूमि दिखला रहे है। वहां सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। ’ प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥ शिव जी पार्वती जी से कह रहे है कि हे भवानी। रंगशाला में प्रीाु की उपस्थिति से ही सभी ने हार मान ली हैं। प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए हैं। प्रभु के तेज को देखकर सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देख रहे हैं। देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं। तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। ’ सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥ यहां तुलसी दास जी कहते हैं कि रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे काव्य की सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं। कवि लोग उन उपमाओं को देते हैं जो जगत की स्त्रियों के अंगों को दी जाती हैं। उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृतए चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है। सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है। शिवजी का धुनष उठाने का पर्यत्नर वहां स्वीयंवर में आए राजाओं ने शुरू किया लेकिन धनुष तस से मस नहीं हुआ। मुरारीबापू कहते है कि शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन कभी चलायमान नहीं होता। जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है वैसे ही सब राजा उपहास के योग्य हो गए। राजाओं को असफल देखकर जनक अकुला जाते हैं और मानो क्रोध में सने हुए बोल रहे हैं कि मैंने जान लियाए पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता। माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥ ’ कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान। नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥ उमा से शिव जी कह रहे है कि वैदेही जनक के वचन सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। लेकिन, रघुवीरजी के डर से कुछ कह नहीं पा रहे हैं लेकिन प्रभु राम के चरण कमलों में सिर नवाकर वे बोल रहे हैं कि यह अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं। लक्ष्मुण जी राम जी से आज्ञा मांग रहे हैं कि आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ। इसमें कही भी लक्ष्मीण जी का घमंड नजर नहीं आ रहा है। उनका स्वडभाव ही ऐसा है। वे कह भी रहे हैं कि प्रभु श्री राम की महिमा ही ऐसी है , यह घमंड से नहीं कह रहा हूं। यदि प्रभु आज्ञा दे तो उनके महिमा से धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ। ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी कांपने लगे। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए। लेकिन, श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया। उसी वक्तस गुरू विश्वामित्रजी कह रहे हैं कि उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥ हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ। गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। प्रेम सहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी। उधर, श्री रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से देवताओं से विनती कर रही हैं। वे व्याकुल होकर मन ही मन कह रही है कि हे महेश.भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिए। इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर बोल रहे हैं कि हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ। श्री रामजी ने जानकीजी को बहुत ही विकल देखा। मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। उन्हों ने धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा इसका किसी को पता नहीं लगा। सबने यही देखा कि श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। सारे ब्रह्माण्ड में जयजयकार की ध्वनि छा गई। जनकजी ने सोच त्याग कर सुख प्राप्त किया। जयमाला के समय सीता जी के हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना देती हैं। श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। उसी वक्तग भगवान परशुराम वहां आते हैं। जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया। उनकी सुंदर जोड़ी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। लेकिन, धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखाई देने पर अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले। रे मूर्ख जनक! बता धनुष किसने तोड़ा। उसे शीघ्र दिखाए नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य हैए वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा। लक्ष्मीण जी और परशुश्राम जी के बीच बढ रहे विवाद को प्रभु श्री राम ने अपने वचनों से कम किया। श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले, हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए। श्री रामचन्द्रजी ने कहा. हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है जिस प्रकार आपका क्रोध जाएए हे स्वामी! वही कीजिए। हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैंए तो यह सत्य सुनिएए फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएं। श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए। परशुरामजी ने कहा हे राम! हे लक्ष्मीपति! लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष हाथ में लीजिए और इसे खींचिए। जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगेएतब वह आप ही चला गया। तब उन्हों ने कहा कि हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो। शिव जी कहते है कि प्रभु श्री राम के निवेदन और विश्वा मिश्र जी के कहने के बाद राजा जनक ने दशरथजी के पास दूत भेजा। अयोध्या से बारात ने प्रस्थान किया। बारातियों कें सत्काेर के लिए बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाए जा रहे है। मुरारी बापू कहते है कि जहां माता जानकी और प्रभु श्रीराम की शादी हो रही हो उस नगर में भला क्याा कमी रह सकती है। मंगल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥ ’ दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥ जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥ ’ दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥ अनेकों मंगल कलश और सुंदर ध्वजा, परदे और चँवर बनाए जा रहे है। मंडप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया। तुलसीदास जी कहते है कि जिस मंडप में श्री जानकीजी दुलहिन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके। जिस मंडप में रूप और गुणों के समुद्र श्री रामचन्द्रजी दूल्हे होंगे वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जिस नगर में साक्षात्‌ लक्ष्मीजी स्त्री का सुंदर वेष बनाकर बसती हैं उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं। समाचार मिलते ही अयौघ्यार में ही आनंद का माहौल हैं। राजा दशरथ ने राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों वर्णन किया। चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते घर तथा गलियाँ सजाने लगे। दशरथ के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है। रथों पर चढ़.चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। सुंदर रथ पर राजा वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी और गणेशजी का स्मरण करके दूसरे रथ पर चढ़े। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे। सूर्यवंश के पताका स्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिए। बीच-बीच में ठहरने के लिए सुंदर घर बनवा दिए जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छाई है। बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने वाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले। ’ मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥ ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥ ब्रह्माजी ने स्वोयं मंगलों का मूल लग्न का दिन देखा। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं। गायों के खुर से धूल उडे ऐसी बेला शादी के मुर्हुत के लिए तय की गई। निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई। सुंदर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं। ’ सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥ सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥ शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द टोलियाँ बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने.अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे हैं। शिव जी कहते है कि जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष मुट्ठी में आ जाते हैं ये वही जगत के माता-पिता श्री सीतारामजी हैं। नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को बार.बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया है। ’ जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥ संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥ जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुएए पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे। श्रेष्ठ देवांगनाएँ जो सुंदर मनुष्य स्त्रियों के वेश में हैं सभी स्वभाव से ही सुंदरी और श्यामा सोलह वर्ष की अवस्था वाली हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं। ’ चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं। नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥ ’ सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥ कुल गुरू वशिष्ठन जी और जनक के कुल गुरू शादी करवा रहें है। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे हैं यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जा रही है। दशरथजी मन में बहुत आनंदित हो रहे है। उसी समय, वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को भरतजी को ब्याह दिया। जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया। देवतागण फूल बरसा रहे हैंए राजा जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनिए जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही हैए आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है। मुनीश्वर की आज्ञा पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती हुई दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं। विवाह से बहुत पहले की बारात आ गई थी और मिथिला नरेश जनक जी और उनके परिवार के विशेष आग्रह पर बारात विव‍ाह के बाद भी काफी दिनों तक रूकी रही। राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन सबेरे उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गएए मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा कि अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जाएगी तब वे व्याकुल होकर एक.दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो संध्या के समय कमल सकुचा गए हों। फिर, जानकी के विदाई का समय आ गया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गईं मानो थोड़े जल में मछलियाँ छटपटा रही हों। वे बार-बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं। ’ सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥ अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥ आदर के साथ सब पुत्रियों को स्त्रियों के धर्म समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों रचा। जानकी ने जिन तोता और मैना को पाल.पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था वे व्याकुल होकर कह रहे हैं। वैदेही कहाँ हैं, ऐसा पूछ रहे है। तब भाई सहित जनकजी वहाँ आए। मुरारी बापू कहते हैं कि जनक जी विवेकी हैं, विदेही है। उनपर ममता आशक्त नहीं होती लेकिन सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। प्रेम के प्रभाव से, ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई ,ज्ञान का बाँध टूट गया। राजा ने सुंदर मुहूर्त जानकर सिद्धि सहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया। ’ सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥ भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥ सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो रहे हैं। मुरारी बापू कहते है कि बे‍ब्‍ी को सबसे ज्यावदा चिंता पिता की होती है। विदाई बेला में मां जानकी अपने माता-पिता को ढांडस बंधा रही है कि आपलोग परेशान मत होइएगा। हमारे साथ मेरी तीन बहनें भी हैं। हमलोग रघुकुल जा रहे है। ऐसा कहत कर मां जानकी रोने लगती है। फिर, अपनी मां सुनयना से कहती है कि माता आप पिताजी को विशेष ख्यारल रख्एिगा। इसके बाद बारात वधुएं सहित अयौघ्या नगरी पहुंची। अवध में नित्य ही मंगल, आनंद और उत्सव हो रहे हैं। इस तरह आनंद में दिन बीतते जाते हैं। दिनोंदिन राजा का सौ गुना भाव प्रेम देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं। अंत में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। वे बोले., हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूं। हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़ते है। और, मुनि तो मुनि होते है। मुरारी बापू कहते है कि जिस प्रकार से राम -लक्ष्महण को लेने के लिए विश्वामित्रजी आए थे उसी प्रकार लौट गए। मुनियें को धन-संपदा की क्यात जरूरत। जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आएए तब से सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनंद.उत्साह हुआए उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते। कवि तुलसी दास कहते है कि श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है,जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।

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